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सोमवार, २३ जुलै, २०१८

दास्ताँ

बेबाक बारिश बरस रही है, कुछ परवाह है तुझे?
वो आये तो कैसे आये जिसकी चाह है तुझे।

रस्ते फुटपाथ सब डुब गये, कुछ लोग भी बह गये
तुझे मगर क्या फिक्र, घर की जो पनाह है तुझे।

ये रोशनदान जो झटपटाकर अब बुझे जा रहे हैं
क्या उनकी सिसकियोंमें सुनाई देती मेरी आह है तुझे?

लगाता क्यों नहीं इल्जाम मुझपर जुर्म ए इश्क का
ये बाग, ये रात, वो चाँद, सब ही तो गवाह है तुझे।

तू तो लिबासोंकी तरह रोज वफ़ाएँ बदलता रहा
क्या मेरी जफ़ा का भी, याद कोई गुनाह है तुझे?

जाने कब रोशनी चली गयी मेरे आँखों की रो रो कर
क्या अब भी कोई ख्वाब सर-ए-निगाह है तुझे।

उफ़क पे ठिठुरता सूरज, समंदर का लहराता पानी
जहाँ कभी हमकदम थे हम, क्या याद वो राह है तुझे

क्या तू जज्बातों की सच्ची दास्ताँ बयाँ करता है
या बस ऐसे नज्म लिखकर लेनी वाह वाह है तुझे।