तुम्हारे घर के सामने तीसरी मंजिल की खिडकी
जिसमे रोशनी देर रात तक जगमगाती रहती थी, मेरी थी।
पहाडी के पास उस सुनसान पगडंडी पे
जो किसी बाईक की टायर के निशा तुमने देखे, मेरे थे।
लोग चाहे जो बुरा भला लिखते हो,
कल साराहह पे तुम्हे जो खाली मेसेज मिला, मेरा था।
किनारे की रेत पर तुम्हारे पैरोंके निशाँ को
एक नजरोंकी लहर जो हलकेसे चुम लेती थी, मेरी थी।
सितंबर आधा बीत चुका था, बारीश पूरी जा चुकी थी
पलकोंपे अटकी हुई जो बाकी नमी थी, मेरी थी ।
दिल ही दिल के दर्द का सबब है, हिज्र ही प्यार का हश्र है,
वो जिंदगी जिसे बस तेरे साथ गुजरने की तलब थी, मेरी थी।
कत्ल हुए थे तमाम अरमान, मैं उन्हें कंधा दे रहा था
जनाजे पे मगर जो जिस्म था, मेरा था ।
वो खिड़की, वो बाइक के निशाँ, वो मेसेज, वो लहर, वो नमी,
वो तलब, वो जिस्म, सब मेरा था, बस तुम न मेरी थी ।
कोणत्याही टिप्पण्या नाहीत:
टिप्पणी पोस्ट करा