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गुरुवार, २८ फेब्रुवारी, २०१९

बेमौसम

मै कहीं दूर किसी पहाड की चोटी पे,
अपने गम समेटकर रखते हुए,
इक सर्द हवा के काँपते बदन को छुकर,
जिस्मकी रूहानी कगार तक सिहर जाता हूंँ।

सीनेमें अपनोंसे मिले रंज के सुराख छुपाता,
रुख्सार पे मुस्कान की बिजलियाँ सजाता,
दिल के कुछ नाकाम रहे ख्वाब ढुंढता,
उम्र की वाकीफ ढलान तक उतर जाता हूं।

मै इक मुद्दत से गहराया हुआ, घना सा,
तकदीर की उंची खडी चट्टानसे कुदकर,
इक अनचाही बेमौसम बरसात बनके,
उसके इकरार की दहलीज तक बिखर जाता हूं।
उसके इनकार की दहलीज पर ठहर जाता हूं।।

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