हा ब्लॉग शोधा

शनिवार, २ मार्च, २०१९

लफ्ज

कागज पे कहाँ सजते थे अशआर कई रोज
अल्फाजों का भी तो मानी से चल रहा था जुआ

महफिल में मेरी कहाँ बची थी रौनक कोई,
हद ए निगाह तक बस फैला था गहरा धुआँ

न उम्मीद थी मन में, न था दिल को कोई गुमान
पर यहाँ माँगी और वहाँ मेरी कुबूल हुई दुआ

ख्वाहीश तो थी कि वे बस कोई इक नज्म सुने
और हमको तो जैसे रेगीस्तान में मिल गया कुआँ

हाँ, कल ही तो यारों साथ मेरे ये हसीं वाकेया हुआ
खुद उनके नाजुक लबोंने मेरे लफ्जों को छुआ

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत:

टिप्पणी पोस्ट करा