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गुरुवार, ६ मे, २०२१

प्रितम प्यारे

साँस लेना भी कैसी आदत है
जीये जाना भी क्या रवायत है
-गुलजार
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आम ही तो दिन था कल भी इस न्यू नॉर्मल का,
हाँ कुछ सिलवटें दिखीं थीं आसमाँ के बिस्तर पे,
दोपहर में थोडे गर्म झोंके चुभे थे आँखो में,
कंधे झुके झुके से लग रहे थे सामनेवाले पहाड के,
शाम को पेडोंके पत्ते झटपटा के दबी सी आवाजों में कुछ सिरीयस बात कर रहे थे..
मगर अंदेशा कतई नही आया था आनेवाली खबर का..

अभी चंद दिन पहले ही तो लाया था रेमडेसीविर कहींसे जुगाडकर,
'सब ठीक है' बता रहे थे बाकी यार दोस्तों को हम खुद हर रोज,
वो डॉक्टर दोस्त जो देख चुका है इस साल कईं कोविड के और भी सिरीयस मामलें,
कह रहा था 'स्लो है मगर इंप्रूव्हमेंट है'
व्हिडीओ कॉल में देते थे तसल्ली, होती थी हौसला अफजाई,
हर बार फोन रखने पे भर आती थी इक उदासी सी, 
एक दुसरे को मगर कहते रहते, 'अब ठीक है', 
सब ठीक लग भी रहा था...
हाँ मगर दवाईयों की, तसल्लियों की और दुवाओं की भी अपनी इक लिमिट है,
कहने को स्लो इंप्रूव्हमेंट होती रही मगर
सांसोंपे लगे बायपॅप मास्क के पहरे आखीर तक हठे ही नहीं
SpO2 नामक कोई जरुरी लेव्हल खुन में रूठी ही रही इतने दिन
धीमे धीमे टूटते ही रहे फेफडों के रेशें..
पुरा चेहरा भी नही देख पाये आखरी कॉल में आक्सिजन मास्क के पीछे,
और अब कभी देख भी नही पायेंगे..
वो स्कूल, वो हॉस्टल, नोंक झोन्क, गिले शिकवे,
मस्तियाँ, किताबें, वो पुरा का पुरा बचपन...
सबकुछ समेटकर हमे सौंपकर बस खामोशी से वो चल दिया
इतनी हताशा, इतनी बेबसी ताउम्र के लिये हमें थमाकर बस चल दिया..

सांँस लेना भी कैसी बुरी आदत है,
जीये जाना भी क्यों इतनी मुश्किल रवायत है?


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