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शुक्रवार, २८ मे, २०२१

जरासी बात

जरासी बात पर भी अक्सर भर आने लगे हैं
अश्क तेज़ाब बनकर दिल को जलाने लगे हैं

वो भी दौर था के अपनापन था रिश्तों में
अब तो लोग बस फर्ज़ निभाने लगे हैं

हमसफर थे जो जिंदगी के इस कारवाँ के
वो शक्स सफर अधूरा छोड कर जाने लगे हैं

युंँ तो पोंछ दिये थे हाथों से कईं दफा मगर
ज़ख्म फिरसे आँखो में आने लगे हैं 

जिंदादिल तो तब थे जब जेबें खाली थी
जरूरतों ने मार दिया, जबसे कमाने लगे हैं

जिनसे बदतमीजी ही तमीज हुआ करती थी
वो दोस्त आजकल तहजीब सिखाने लगे हैं

छोड आता हूंँ हर रोज गांव की सरहद पर
दर्द बिल्ली की तरह फिर लौट आने लगे हैं

खुशियों का कारोबार थम सा गया है और
अब हम अपने दुःख पे भी लाइक्स पाने लगे हैं

*ये कहना था उन से मोहब्बत है मुझ को
ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं

अपने ही दिल पर और सितम ढाने लगे हैं
इश्क के मज़लुम फिर इश्क लडाने लगे हैं



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*हा शेर जनाब ख़ुमार बाराबंकवी यांचा आहे

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