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गुरुवार, ११ जुलै, २०१९

ग़ालिब-ओ-गुलजार चलें

आपकी इनायत के जो हमें लम्हे दो चार मिलें
यूँ लगा हम आपके इश्क में सारी उम्र गुजार चलें

आपके कईं चेहरे उभरते हैं हमारे हसीन एहसासों में
हमारे सारे जज्बातोंमे एक आप ही के दीदार चलें

वो पीला पैरहन और चेहरे पर बिखरी बालों की बेलें
आपकी इक मुस्कान पे हमारी खुशियों के कारोबार चलें

रगों में कुछ अजीम सी खुशबुएँ दौड़ने लगी हैं
हमारे खून में जो आपकी मुहब्बतों के करार चलें

खुदाओंको अपनी इबादतोंसे महरूम कर के हम
आपके पाकीजा कदमोंपर अपना ये दिल उतार चलें

कबतक इंतज़ार में यूँही खिजाँ के मौसम पालते रहें
चले भी आओ कि हमारे चमन में कभी तो बहार चले

एक बार जो अपने होठों से आपका नाम चूम लें
फिर हमारी कलम से भी ग़ालिब-ओ-गुलजार चलें

जाँ से अजीज हो भी तो चाँद बाहों में नहीं आता
क्यूँ फिर आसमाँ की ओर हाथ उठाकर कोहसार चलें

मेरे आँगन में तेरे क़दमों की महक अभी तक आती है
जबकी तेरे बाद भी यहाँसे फूलोंके मौसम कई बार चलें

बताइये ये कातिलाना हुनर आपने कहाँ से सीखे हैं
कि ज़रा नजर मिला लें तो दिल पे तीर-ओ-तलवार चलें

जिस धड़कन में तेरा नाम आया था मै उसीमे जम गया हूँ
तुम दिल की गिरहें खोल दो तो साँसों की रफ़्तार चले


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