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शुक्रवार, १२ जुलै, २०१९

अपने हिस्से की धूप

जाने कितनी सदियोंसे
ये आसमानी जुगनू
रोज जल बुझ रहे हैं

जाने कितनेही युगोंसे
हर सुबह धूप दौड़ती आती है
और हर शाम मुझसे खो जाती है

क्या कोई इसका हिसाब रखता होगा?

मै तो कई सालों से
बंद दीवारों में
सफ़ेद रौशनी के दियोंमे बैठा
अपने हिस्से की कितनी ही धूप खो चुका हूँ

रोज मेरी धूप
दरवाजे, खिड़कियाँ खटखटाती रहती है,
और मै उसे किवाड़ोंसे, पर्दोंसे
धकेल देता हूँ फिर बाहर की तरफ

ये खिड़कियों के बंद काले काँच
रिवाजों की तरह है, जो तोड़े नहीं जाते

अपने हिस्से की धूप के लिए
मुझेही मेरा मकान छोड़ना होगा



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